“आजम खान का सच: समाजवाद की धरती से सियासत के आईने तक”
“आजम खान का सच: समाजवाद से सियासत के आईने तक”
राजनीति का सच अक्सर जितना गहरा होता है, उतना ही दर्दनाक भी।
कभी समाजवादी पार्टी की पहचान रहे आजम खान, अब उसी पार्टी में अपनी “पहचान” तलाशते दिख रहे हैं।
वो नेता, जिन्होंने समाजवादी आंदोलन को ज़मीन पर उतारा, जिनकी आवाज़ कभी मुसलमानों और वंचितों की सबसे मज़बूत पुकार मानी जाती थी — अब सियासत की भीड़ में एक “खामोश चेहरा” बन गए हैं।
🔹 मुलायम सिंह का दौर और सच्चा समाजवाद
एक समय था जब मुलायम सिंह यादव और आजम खान की जोड़ी समाजवाद की रीढ़ मानी जाती थी।
आजम खान सिर्फ़ एक नेता नहीं थे, बल्कि विचार का प्रतीक थे — अल्पसंख्यकों की आवाज़, हाशिए पर पड़े तबकों की उम्मीद।
लेकिन वक्त के साथ पार्टी की दिशा बदली, और समाजवाद “आदर्श” से ज्यादा “आदेश” बन गया।
🔹 अखिलेश युग और सत्ता की सियासत
अखिलेश यादव के दौर में पार्टी ने आधुनिकता, गठबंधन और डिजिटल छवि पर ज़ोर दिया।
लेकिन इस बदलाव में वो पुराने साथी छूट गए, जो समाजवादी आंदोलन की असली मिट्टी थे।
आजम खान जेल गए, सियासत से दूर हुए — और पार्टी ने चुप्पी साध ली।
क्या ये वही समाजवाद है जो कभी संघर्ष की नींव पर खड़ा था?
🔹 विचार बनाम रिश्ते
अब सवाल ये है — क्या समाजवादी पार्टी अब विचारों की नहीं, बल्कि रिश्तों की पार्टी बन चुकी है?
जहाँ निष्ठा से ज़्यादा “नज़दीकी” मायने रखती है?
राजनीति में हित स्थायी होते हैं, लेकिन आजम खान की कहानी बताती है कि “हित” भी समय के साथ बदल जाते हैं।
🔹 निष्कर्ष
आजम खान का सियासी सफर सिर्फ़ एक नेता की कहानी नहीं, बल्कि एक विचारधारा की गिरावट की दास्तान है।
जिस समाजवाद ने आवाज़ दी थी, वही आज चुप्पी में बदल गया है।
शायद राजनीति का यही सबसे बड़ा सच है — जो साथ चला, वही सबसे पहले पीछे छोड़ा जाता है।
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