“ममता हुई शर्मसार: महिला ने नवजात को नहर में फेंकने का किया प्रयास”
“आज सुल्तानपुर ने इंसानियत का चेहरा देखा — और वो डरावना था।”
📰 सुल्तानपुर से सवाल: आखिर हमारी मानवता कब तक शर्मसार होती रहेगी?
रिपोर्ट — KD News Dijital | सुल्तानपुर
गोसाईगंज थानाक्षेत्र के बाबूगंज में नहर किनारे घटी एक घटना ने फिर से इंसानियत को झकझोर दिया। एक महिला ने नवजात बच्ची को झोले में डाल नहर में फेंकने का प्रयास किया। संयोग से एक राहगीर की नज़र पड़ गई, जिसने महिला को रोक लिया और पुलिस को सूचना दी।
अस्पताल ले जाने पर बच्ची को मृत घोषित कर दिया गया।
लेकिन असल सवाल यह है कि — क्या हमारी संवेदनाएँ इतनी मर चुकी हैं कि एक मां अपनी ही कोख की संतान को इस तरह मौत के हवाले कर दे?
💔 “समाज की चुप्पी सबसे बड़ा अपराध”
हमारी सभ्यता में ‘मां’ को देवी का रूप माना जाता है। पर आज वही मां, मजबूरी या मानसिक दबाव में अपनी ममता को मार रही है।
यह सिर्फ़ एक महिला की गलती नहीं, बल्कि पूरे समाज की सामूहिक असफलता है —
जहां गरीबी, लिंगभेद, सामाजिक तिरस्कार और मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी ने इंसान को पत्थर बना दिया है।
🔍 “कहाँ खो गई सामाजिक जिम्मेदारी?”
आज जब हर गली-मोहल्ले में ‘बेटी बचाओ’ के नारे गूंजते हैं, वहीं किसी नहर में नवजात बच्ची की लाश मिलती है — तो यह हमारे झूठे आदर्शों पर तमाचा है।
हम बच्चों को बचाने की बातें करते हैं, पर जब किसी मां को मदद की ज़रूरत होती है, तब समाज चुप रहता है।
क्या यही आधुनिकता है?
क्या यही संवेदनशील भारत का चेहरा है?
⚖️ “सिर्फ कानून नहीं, करुणा की ज़रूरत”
पुलिस अपना काम करेगी, मुकदमा चलेगा, पोस्टमार्टम रिपोर्ट आएगी — लेकिन इस घटना से बड़ा सवाल ये है कि क्या हम अपने भीतर इंसान को जिंदा रख पाए हैं?
कानून सज़ा दे सकता है, लेकिन संवेदना को नहीं जगा सकता।
आज ज़रूरत है ऐसे समाज की, जो किसी महिला को इस हालत तक पहुँचने ही न दे।
“आज सुल्तानपुर की ये घटना सिर्फ़ एक महिला या एक नवजात की कहानी नहीं है…
ये उस समाज का आईना है, जो तकनीक में आगे बढ़ गया, लेकिन इंसानियत में पीछे रह गया।
सवाल सिर्फ़ उस मां से नहीं है जिसने अपनी बच्ची को नहर में फेंकने की कोशिश की — सवाल हम सब से है।
हम कहाँ थे जब उसे सहारे की ज़रूरत थी?
कहाँ थे जब समाज ने उसे ताने दिए, या गरीबी ने उसे तोड़ा?”
“आज हर वो व्यक्ति दोषी है जिसने ऐसी स्थितियाँ बनने दीं…
हर वो सोच अपराधी है जो ‘बेटी’ को बोझ मानती है…
और हर वो खामोशी, एक ‘कब्र’ बन चुकी है — जिसमें हमारी इंसानियत दफ़न हो रही ह
“सोचिए…
अगर एक मां अपनी कोख की ममता को मारने पर मजबूर हो जाए —
तो फिर हम किस समाज में जी रहे हैं?
ये समय सिर्फ़ अफसोस का नहीं, आत्ममंथन का है।
क्योंकि सवाल अब ये नहीं कि बच्ची क्यों मरी —
सवाल ये है कि हमारे भीतर की इंसानियत कब जिंदा होगी?”
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